चाणक्य नीति के अनुसार जीवन में सुख और दुःख कया है-?
चाणक्य नीति श्लोक अर्थ सहित- नध्यातं पदमश्वरस्य विधिवत्संसार वि यह तये । स्वर्ग द्वारकपाट पाटनपटु धर्मोऽपि भोपाजितं । नारी पीनपयोधरो रूयुगलं स्वपनेऽपि नालंगत । मातु केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ॥
आचार्य चाणक्य जी अपने इस श्लोक में मानव जीवन के रहस्य से परदा उठाते हुए कहते हैं कि जो पुरुष इस संसार में आकर पूजा पाठ नहीं करते प्रभु के नाम की माला नहीं जपते कभी देवताओं की अराधना नहीं करते । वेद पाठ नहीं करते । और जिन लोगों ने अपने में भी किसी रमणी के साथ प्रेम करके भोग का आनन्द नहीं पाया । ऐसे लोग कहां इस लोक के सुख भोग सकते हैं उनके लिए मानव जीवन का होना न होना एक समान होता है । आखिर ऐसे लोग मानव जन्म पाते ही क्यों हैं । क्यों नहीं यह सब जीवन के वास्तविक सुख को क्यों नहीं भोगते ? मानव जन्म तो हर बार नहीं मिलता इसलिए हे बन्धुओं जीवन के उन सुखों को कभी मत छोड़ो जो प्रभु ने आपको उपहार स्वरूप दिये हैं ।
जलपन्ति सार्द्धमन्येन पश्यन्त्यन्य सविभ्रमा । अर्थ : हृदय चिन्तयन्त्यन्य न स्त्रीणामके तो ॥
प्रेम को मानव जीवन से कभी भी अलग नहीं किया जा सकता । चाणक्य जी ने इस प्रसंग का उत्तर देते हुए इस श्लोक में कहा है कि औरतें कभी भी किसी एक व्यक्ति से प्रेम नहीं करती । क्योंकि उनके मन और होता है और जुबान पर कुछ और आंखें कहीं और नारी प्रेम एक छल है परन्तु यदि कोई नारी सच्चे मन से किसी पुरुष से प्रेम करने लगती है तो उस पर जान देने से पीछे नहीं हटती ।
योमहान्मन्यते मूढो रक्तेय मयी कामिनी स सत्या वशगो भूत्वामृत्येय क्रीडाशुकन्तवत ॥
कुछ लोग प्रेम जाल में इतने फंस जाते हैं कि वे अंधे हो जाते हैं यहां तक कि अपनी बुद्धि तक खो बैठते हैं इसी कारण वे नारी के दास बन कर मनोरंजन के लिए पाले हुए पक्षी की भांति उसके इशारों पर नाचने लगते हैं । क्या इसे ही प्रेम कहते हैं ? ऐसे प्रेम का क्या लाभ ?
कोऽथन प्राप्य न गर्वितो विषपिण कन्या पदोऽस्तगता । स्वोभि कस्या न खंडित भुविमन को नाम राजोप्रिय ॥ का कालस्यन गोचरत्वमगमत कोऽर्थी गतो गौरवम । को वा दुर्जन वागुरासु पतितः क्षेमण यतिः पथि ॥
अर्थ : -
क्या आप अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते हैं ? क्या आपके विचार में जीवन के सुख प्राप्त करने के लिए धन का होना जरूरी है ? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर सामने हर प्राणी बेबस सा लगता है क्योंकि धन का अधिक होना भी तो अभिमान की जड़ है और यही अभिमान मानव का शत्रु है । ऐसा भी कोई मानव नहीं हुआ जो नारी प्रेम में अंधा होकर जीवन मार्ग से भटक न गया हो । ऐसे भी लोग संसार में नहीं हुए जो सदा शाही घरानों में सम्मान होते रहे हो । ठीक ऐसे ही इस संसार में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो पापियों के फंदे में फंसकर अपने धर्म से गिर गये हों । उसे वास्तव में ही इसका बहुत दुःख भी होता है क्योंकि ऐसा वह मन से नहीं चाहता था । ऐसे बनाने वाले उसके साथी ही तो होते हैं , क्योंकि कोई भी इन्सान मन से बुरा नहीं बनना चाहता । ठीक ऐसे ही कोई भी मानव हृदय से वासना का पुजारी नहीं होता बल्कि यह सुन्दरिया अपनी नशीली अदाओं में उसे ऐसा करने पर मजबूर कर देती है ।
निर्मतः केन दुष्ट पूर्व न श्रूदते हेममयी कुरंगा । तथापित तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धि ॥ :
क्या आप जानते हैं कि अभी तक किसी ने फिर से सोने का मृग नहीं बनाया यदि पहले से बना सोने का वह मृग फिर से आ जाए तो पहली भूल को श्री राम जी फिर दुहरा सकते हैं ? ऐसा कुछ नहीं होता यह सब कुछ तो भाग्य के खेल हैं । जब भी इन्सान के बुरे दिन आते हैं तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । उसकी सोचने समझने की शक्ति भी नष्ट हो जाती है सोने के मृग के जाल में कैसे फंस सकते थे स्वरूप भगवान का अवतार थे । यह सब तो भाग्य के खेल हैं जिन्हें स्वयं फिर साधारण व्यक्ति इसे कैसे टाल सकते हैं । काम नहीं करती ।
गूजै रूत्ततां यान्ति नोच्चैरासन संस्थिता । प्रसाद शिखर स्थोऽपि काक किं गरूडायते ॥
अर्थ-
हर मानव अपनी बुद्धि और गुण के सहारे ही ऊपर उठता है । यदि किसी को आप ऊंचे स्थान पर बैठा दोगे तो क्या वास्तव में ही वह बुद्धिमान और ज्ञानी हो गया ? यदि ऐसे ही बड़ा बन सकता तो शाही महलों की चोटी पर बैठा कौआ तो राजा से भी बड़ा बनता ।
गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पदः । पूवोन्दुकिं तथा वन्धो निष्कलंको यथाकुश ॥
अर्थ-
चाणक्य जी ने बार बार अज्ञानी लोगों को समझाते हुए यह बात कही । है कि इन्सान को जो भी स्थान इस समाज में प्राप्त होता है वह उसके गुण दोषों के आधार पर ही मिलता है इसलिए यदि आप इस समाज में परिवार में किसी सभा में अपना सम्मान बनाए रखना चाहते हैं तो अपने आप में इतने गुण पैदा करें ताकि लोग आपका सम्मान करने पर मजबूर हो जाएं व्यक्ति बुद्धि से बड़ा होता है कपड़ों और धन से नहीं ।
चाणक्य नीति-
परैरुरवतगुणों यस्तुनिर्गुणोऽपि गुणीभवेत । इन्दोऽविलधुतां स्वंत प्रख्यापितैर्गुणै ॥
अर्थ-
गुण ज्ञान बुद्धि इन सबकी शक्ति को तभी मान सकते हैं । जब लोग आपकी इन चीज़ों को सुख से प्रशंसा करें यदि आप स्वयं ही अपने आप में इतने गुण पैदा करें ताकि लोग आपका सम्मान करने पर मजबूर हो जाएं व्यक्ति बुद्धि से बड़ा होता है कपड़ो और धन से नहीं ।
विवेकिनमन प्राप्ता गुणा यान्ति मनीज्ञातम । सूतरां रत्नमा याति चामीकरनियो जितम ॥
अर्थ : -
चाणक्य जी गुणों के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि गुण तो उसी व्यक्ति के माने जाते हैं जो स्वयं ही बुद्धिमान नहीं अपने आपको गुणवान ज्ञानी कहने से थोड़ा गुणवान माना जाता है । जो गधे और घोड़े में अन्तर नहीं जान सकेंगे । कोई अपने गधे को घोड़ा कहकर बेचना चाहे तो क्या लोग इतने पागल है जो घोड़े और गधे में अंतर नहीं जान सकते।
गुणै र्सर्वज्ञतुस्योऽपि सीदत्येकी निराश्रय अमर्थ्यमापि भाणिवयं हेमाश्रेर्यमणे क्षति ॥
अर्थ-
आप यह तो जानते हैं कि रत्न कितना महंगा होता है परन्तु उस अपने को गुणवान बनाने के लिए सोने के सहारे की जरूरत पड़ती है जब तक वह सोने में न जड़ा जाए तो उसे कौन पूछता है ठीक ऐसे ही गुणवान पुरुष जब तक अपने गुण का चमत्कार नहीं दिखाता तो उसे कौन मानेगा ।
किंतया क्रियतेलक्ष्म्या या वधुरिव केवला । या तु वेश्येव सा सान्य पथिकैररिषु भूज्यते ॥
अर्थ-
चाणक्य जी का मत है कि उस धन का भी क्या लाभ जो कुल वदु की भांति केवल अपने स्वामी के अपने ही उपभोग में आती है । वही लक्ष्मी भाग्यशाली और पूज्य मानी जाती है जो वेश्या की भाँति न केवल सब लोगों के कर्म में आए बल्कि हर राह चलते राही को भी प्रसन्न कर के उसकी इच्छाओं की पूर्ति करें किसी भी चीज को जन जन की भलाई के लिए प्रयोग में न लाना भी तो उसके गुणों को दोष में बदलना है ।
धनेषु जीवित व्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु । अतृप्त प्राणिन सर्वे याता यास्यन्ति च ॥
अर्थ-
इस माया रूपी संसार में आज तक कोई भी मानव ऐसा नहीं मिला जो धन , नारी , भोजन तथा अन्य वस्तुओं को पाकर हार्दिक रूप से संतुष्ट हुआ हो , परन्तु अतीत में जब हम नजर डालते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है । उस समय लोग बहुत ही धैर्यवान और संतुष्ट थे परन्तु बदलते समय ने उन्हें भी असंतुष्ट बना दिया । वही परम्परा अब तक चली आ रही है ।वही धन का लोभ , वही नारी की इच्छा के पीछे वासना की पूर्ति खाने पीने के स्वादों के पीछे भागते रहना । इन सब चीजों के पीछे भागने वाले लोग प्रभु को भूल रहे हैं जो बुरी बात है ।
क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञ होमबलिक्रियाः । न क्षीयते पात्रदानम भयं सर्वदेहिनामः ॥
अर्थ-
इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस संसार में सब प्रकार के यज्ञ होम तथा बलिदान कर्म फल भोग लेने के पश्चात् नष्ट हो जाते हैं । लेकिन सत्पात्र को दिया गया दान जीवन को दिया गया अभय दान कभी नष्ट नहीं होता । और न हीं वह कभी व्यर्थ जाता है यदि आपकी भावना शुद्ध मन में कोई पाप नहीं तो आपको इसका फल तो अवश्य मिलेगा । फिर आप चिंता क्यों करते हैं बस अपने कर्म करते जाएं फल प्रभु देंगे ही ।
तृणलघु तृणातूलं तुलादपि च याचक । वायुना कि न नीतोऽसौ मामयं याचमिष्यति ॥
अर्थ-
क्या मांगने वाले से सब लोग डरते हैं ? इस प्रश्न को लेकर चाणक्य जी कहते हैं कि हमारे समाज में लोग मांगने वालों को नहीं चाहते सब से बुरा तो उन्हें मांगने वाला ही लगता है ऐसा क्यों ? हमारे समाज में सब से हल्की चीज़ घास है और इस घास में भी हल्की रूई है , रूई से भी हल्का याचक है । अब कवि प्रश्न करता है कि यदि घास रूई भरे याचक हल्का है तो जब हवा रूई और घास को उड़ा कर ले जाती है तो फिर याचक कैसे बचता है ? वायु को इस बात का डर है कि यह याचक उससे भी याचना करेगा । इसलिए वह याचक को वहीं छोड़ जाती है । यही हाल उस मागंने वाले से डरने से होता है क्योंकि हर आदमी हवा की भांति इस बात से डरता है कि कहीं यह कोई सवाल ही न कर दे ।
वरं प्राण परित्यागो मान भंगेन जीवनात् । प्राण त्यागे क्षणं दुःखे मानभंगे दिनेदिने ॥
अर्थ : -
चाणक्य जी मान मर्यादा के विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि बेइज्जत होकर जीने से तो मर जाना ही अच्छा है क्योंकि मौत का दुःख तो केवल एक बार ही होता है । अपमानित होने का दुःख तो हर समय मन पर बोझ बना रहता है ।
प्रिययवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तव । तस्मात वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥
अर्थ-
चाणक्य जी कहते हैं कि हर मानव को मदु भाषी होना चाहिए । उसकी वाणी में इतनी मिठास हो कि उसे सुनते ही उसके शत्रु का हृदय भी पिघल जाए । मीठे बोल में एक ऐसा जादू होता है जो हर एक को अपना बना लेता है । क्या मीठा बोलने में कुछ धन लगता है ? नहीं यह तो प्रकृति की दया का उपहार है जिसे केवल बुद्धिमान व्यक्ति ही जान सकते हैं । पागल हैं वे लोग जो इस उपहार को काम में न ला कर लाभ नहीं उठाते ।
संसार विषवृक्षस्य द्वेफले अमृतोपमे । सुभाषि च सुस्वादु संगति सज्जने जने ॥
अर्थ-
चाणक्य जी इस श्लोक में बताते हैं कि इस संसार रूपी विषवृक्ष के दो फल हैं जो अमृत के समान मधुर होने से ग्रहणीय हैं ।. सुभाषित , यानी मधुर बोल बोलना वास्तव में ही सफल जीवन के लिए सब से गुणकारी और मधुर फल यही है , 2. साधु सन्तों ज्ञानियों का संग , इससे भी पाप धुल जाते हैं स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं ।
जन्म जन्मन्यभ्यस्तं दानमध्यनं तपं । तैनवाऽभ्यासयोगेन देही चाभ्यस्यतेपुन ॥
अर्थ-
चाणक्य जी इस श्लोक में कहते हैं कि जो मानव जीवन में दान देते हैं तथा धर्म शास्त्रों का अध्ययन करते हैं उनका कल्याण तो प्रभु स्वयं करते हैं । ऐसे ज्ञानी पुरुषों के लिए तो स्वर्ग में हर समय स्थान खाली होते फिर आप सब क्यों नहीं अच्छे कर्म करते ताकि स्वर्ग में आपको भी स्थान मिल जाए
पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषुयुद्धनम | उटपन्नेषु च कार्येषु न साविद्या न तद्धनम ॥
अर्थ-
चाणक्य जी कहते हैं हे बन्धुओं पुस्तक में लिखी विद्या और दूसरे के पास जमा धन यह दोनों चीजें जरूरत पड़ने पर काम नहीं आती । " विद्या का लाभ तो तभी हो सकता है यदि आपने उसे पढ़ कर ज्ञान प्राप्त कर लिया हो । धन वही काम आता है जो आपकी जेब में हो । दूसरे के पास पड़े धन का क्या लाभ । वह तो कभी भी धोखा दे सकता है । इसलिए इन दोनों बातों का ध्यान रख कर ही जीवन में कोई काम तो करें यह सबसे बड़ी बुद्धिमानी है ।
Disclaimer- इस लेख में दिए गए सभी तरह की जानकारी क्या हमारा कोई योगदान नहीं है.। यह सभी धार्मिक मान्यता और धर्म ग्रंथो के अनुसार प्रकाशित किया गया है। हमारा उद्देश्य सिर्फ आप चाणक्य नीति के बारे में कुछ श्लोक शेयर करना मकसद है। इसके अलावा हम किसी भी तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते।
0 टिप्पणियाँ