चाणक्य कौन थे | चाणक्य ने एक साधारण बालक को राजा कैसे बनाया | चाणक्य ने अपमान का बदला कैसे लिया |

चाणक्य कौन था और उन्होंने अपने प्रतिशोध का बदला किस प्रकार लिया ? आईए जानते हैं इस लेख के माध्यम से चाणक्य की  पूरी कहानी वह कौन थे और किस प्रकार उन्होंने अपने प्रतिशोध का बदला लिया।

चाणक्य की जीवन परिचय- आचार्य चाणक्य को विष्णु गुप्त और कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और उन्होंने अपने शिक्षा तक्षशीला जो अब पाकिस्तान में है से प्राप्त की थी।

चाणक्य का राजनीतिक ग्रंथ अर्थशास्त्र लिखा  हुआ है जो बहुत ही प्रसिद है। उन्होंने मौर्य वंश की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आचार्य चाणक्य आचार्य चाणक्य ने बहुत सारे विषयों  के बारे में गहन ज्ञान रखने वाले एक उच्च विद्वान थे।  उन्होंने एक शिक्षक के रूप में अपना करियर शुरू किया था और आगे चलकर वह सम्राट चंद्रगुप्त के एक भरोसेमंद सलाहकार थे।


चाणक्य ने प्रतिज्ञा कैसे पुरी की 

मैं चाणक्य राजनीति का सबसे बड़ा खिलाड़ी । मेरी शक्ति तलवारों जिसकी शक्ति से मैंने राजनीति को जन्म दिया । सैनिकों , भालों , तीरकमानों में नहीं बल्कि मेरी बुद्धि और मेरा ज्ञान है । "

प्रतिशोध अर्थात् बदला । मैं बदले की आग में जल रहा था तो मैंने उस आग से उस शत्रु को ही जलाकर राख कर दिया और मेरा ही नीति शास्त्र उस आग में से कुन्दन बन कर निकाला तो राजनीति आकाश का सूर्य बन गया जिसका प्रकाश धरती के कण - कण में नजर आएगा । आने वाले विद्वान इसको पूरे संसार को बांटते रहेंगे । 

मैं आप सब के लिये हूं । मैं पूरी मानवता की भलाई के लिये जीवित रहा हूं और मेरी शिक्षा युग युगांतरों तक भटके हुए लोगों को सत्य का मार्ग दिखाती रहेगी । मैंने अपनी इस विद्या शक्ति पर कभी भी गर्व नहीं किया जबकि इस शक्ति से मैंने अनेक गर्व करने वालों के गर्व तोड़े हैं ।

मैं यह बात खुले आम कहता हूं कि ईश्वर के पश्चात् संसार से बड़ी शक्ति और कोई नहीं । मैंने ही इस शक्ति को समझा । तभी उस शक्ति का कमाल सारे संसार को दिखा दिया । मैं जानता हूं यह संसार सदा चलता रहेगा । मगर हम नहीं होंगे संसार की गति कभी नहीं रूकी और न ही कभी रूकेगी । इसके विपरीत मानव हृदय की गति एक सीमा तक पहुंच कर रूक जाती है ।


 ज्ञान तो प्रकाश है अज्ञान अंधेरा है । परन्तु ऐसे कितने लोग हैं जो इस ज्ञान और अज्ञान के अन्तर को समझते हैं ।

श्लोक-

  संसारता पदग्धांनां , त्रयो , विश्रांति हैतवः । आपयं च कल्त्रं चत्रसतां संगति खेच ॥

 इस संसार में दुःख के मारे लोगों की तीन बातों से ही शांति मिल सकती है ।

 1. अच्छी योग्य , बुद्धिमान संतान । 

2. पतिव्रता नारी जो पति की सेवा अपना धर्म समझे । 3. ज्ञानी , विद्वान तथा भले लोगों की संगति और ज्ञान वर्धक पुस्तकों के पढ़ने से  यही था चाणक्य जी का जीवन संदेश ।


आज के युग में इस भ्रष्टाचारी राजनीति के अखाड़े में जो गंदगी फैल रही है । उसे तो केवल महापंडित चाणक्य जी की शिक्षा से ही दूर किया जा सकता है । चाणक्य जी के इस शिक्षा को ग्रहण करने से पूर्व उनके व्यक्तिगत जीवन पर एक नजर डाले आखिर ऐसी कौन सी घटना घटी जिसके कारण उनके हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी ।

चाणक्य ने प्रतिशोध कैसे लिया-

 उस आग में उस युग के सर्वशक्ति मान राजा महानन्द के गर्व को जलाकर राख करने वाले आचार्य चाणक्य जी ने हमें दिया विश्व विख्यात ग्रन्थ कौटिल्य अर्थशास्त्र तथा चाणक्य नीतिशास्त्र और चाणक्य सूत्र । उस महान व्यक्ति का जीवन कहां से चला जरा कल्पना करें आज से करीब 2,500 ( दो हजार पांच सौ ) वर्ष पूर्वकाल की । आप में से कितने लोग है । जो 2500 वर्षों के पीछे के इतिहास को देख सकते हैं ।

 मैं समझता हूं ऐसा संभव नहीं है । लेकिन आचार्य जी संस्कृत भाषा में अपना जो खजाना ग्रन्थों के रूप में छोड़ गए हैं । उससे हम इस युगों पुराने इतिहास को जान सकते हैं पढ़ कर हम प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं । जिस समय चाणक्य जन्म हुआ उस समय भारत वर्ष पर नन्दवंश के नौवें में नन्द महाराजा महानन्द का राज था जो अपने आपको धरती के भगवान् से कम नहीं समझता था ।


 वह अपने स्वार्थी प्रशंसकों की बातों में आकर अपनी प्रजा पर तरह - तरह के अत्याचार किया करता था । अपने समय का वह सबसे अहंकारी राजा था जो हर समय सुरा सुन्दरी में डूबा रहता था । नन्दे सम्राट के इन अत्याचारों के कारण ही उसके देश के कई टुकड़े हो गए । देश की इस फूट का लाभ उठाकर विदेशी आक्रमण कारी यूनानी शासक सिकंदर ने भारत को लूटने की योजना बना डाली । सिकन्दर को यह पता था आपसी फूट का लाभ उठाकर वह नन्द शत्रुओं को अपने साथ मिलाकर भारत पर अपनी विजय के झंडे गाढ़ देने में सफल हो टिक सके । जाएगा ।

 भारत में ऐसी कोई शक्ति नहीं रही हैं जो उसकी सेना के सामने अपनी विशाल सेना को लेकर सिकंदर इरान के रास्ते भारत पर हमला करने चल पड़ा, छोटे छोटे राजाओं को हरा कर सिकंदर आगे बढ़ने लगा । एक विजेयता अपनी शक्ति को वैसे ही अधिक समझ बैठता है जब


वह जीत पर जीत प्राप्त करता जाता है , सिकन्दर अपने आपको महान समझ बैठा । भारत के सारे महाराजे सिकन्दर के आगे अपने को कमजोर महसूस करने लगे । ऐसे में ही एक महाशक्ति का उदय हुआ था । जिसका सकते हैं कि अढाई हजार वर्ष पूर्व चाणक्य जी ने तक्षशिला विश्वविद्यालय नाम था।

 चाणक्य क्या आप में से कुछ लोग इस बात पर विश्वास कर से राजनीति में स्नातक की शिक्षा प्राप्त की थी । उसी समय को यह बात है कि मगध नरेश महानन्द का सेनापति शकटार अपने राजा के पिता के भोज के लिए ब्राह्मणों की खोज में निकला था । 

उसने जैसे ही काले कलूटे बुरी शक्ल वाले ब्राह्मण को कुशाओं की जड़ों को खोद - खोद कर उनमें मट्ठा भरते देखा तो बड़े आश्चर्य से डूबते दिल से कुरूप ब्राह्मण के पास गया और पूछने लगा । हे ब्राह्मण आप यह सब क्यों कर रहे हैं ?


 उसके प्रश्न पर चाणक्य ने उत्तर दिया कि मैं इन के बीज को ही नष्ट करना चाहता हूं ? ऐसा क्यों ? इसलिये कि इसकी कुशाओं ने मेरे पांव में घुस कर उसे कष्ट पहुंचाया है । ऐसे शत्रु का बीज नाश करना हमारा धर्म है । शकटार ने जब उस करूप ब्राह्मण के मुख से यह शब्द सुने तो उसे बहुत खुशी हुई । 

शत्रु का बीज नाश करना ही इन्सान का धर्म है । वाह . वाह वाह . . हे भद्र और ज्ञान पंडित आपने तो मेरा मन जीत लिया है । 

मुझे ऐसे ही महापुरुष ज्ञानी की तलाश थी । आप कौन हैं ?

 मेरा नाम शकटार है मैं राजा नन्द का महामंत्री हूं , उस राजा ने मेरे साथ जो अन्याय किया है उसे मैं कभी भूल नहीं सकूंगा । कैसा अन्याय ?

उस राजा ने कुछ स्वार्थी लोगों की बातों में आकर मुझे और मेरे परिवार के लोगों को लम्बे समय तक जेल में बंद रखा ।

 मगर आपका क्या दोष था ?

एक वैश्या जो राजा की रखैल थी राजा का यह कहना था कि मैं उस पर बुरी नजर रखता हूं । उसने मुझे तो जेल में डाल दिया और उस वैश्या मुरां को गर्भवती अवस्था में देश से बाहर निकाल दिया । बहुत लम्बे समय के पश्चात् राजा को मुझ पर न जाने कैसे दया आ गयी कि उसने मुझे जेल से मुक्त करके मेरा खोया हुआ पद फिर से वापस दे दिया । 

लेकिन मैं अभी तक उन जख्मों से पीड़ित हूं जो उस राजा ने मुझे दिये हैं ।


ऐसा होना स्वाभाविक बात है , चाणक्य जी ने अधिक गहराई में न हुए बात को टालने के लिए कह दिया । शक्टार अपने मन से सोच रहा था कि यदि यह ब्राह्मण मेरे साथ राजा के भोज चल पड़े तो राजा अवश्य ही इसका अपमान करके सभा से निकालेगा । इस पर इस ब्राह्मण जाएगा तो . को क्रोध जरूर आएगा ।


 यह प्रतिशोध की आग में जलता हुआ वहां से एक दिन कुशा के पौधों की भांति उसकी जड़ें भी खोद एक तीरस ही फिराक से राजा से अपने अपमान का बदला चुकाने का मौका फिर कब मिलेगा ।

 

 एक तीर से दो शिकार शक्टार का तेज दिमाग बिजली की सी तेजी से काम करने लगा । उसने चाणक्य जी के हाथ जोड़ते हुए बड़ी नम्रता से कहा । हे ब्राह्मण आप मेरे राजा के यहां भोज का निमंत्रण स्वीकार कर लें तो हमारा और हमारे राजा का सौभाग्य होगा । 


चाणक्य का मन और मस्तिष्क दोनों ही उस समय तेजी से काम कर रहे थे । सिकन्दर का भारत पर आक्रमण करके हजारों बेगुनाह भारतवासियों के खून से हाथ रंगना हजारों बच्चों की हत्या नारियों का अपमान । 

उस दुष्ट सिकन्दर को यदि शीघ्र ही आगे बढ़ने से न रोका गया तो पूरे का पूरा भारत ही इस आग की लपेट में आकर जल जाएगा । भारत इस यूनानी लुटेरों का गुलाम बन जाए यह चाणक्य से सहन नहीं हो पा रहा था । उसे यह भी पता था इस क्षेत्र में महानन्द ही एक ऐसा शक्तिशाली राजा है जो सिकन्दर को हराने की शक्ति रखता है ।

 इसी कारण चाणक्य महानन्द से शराब और सुन्दरी में डूब चुका है यदि उसे देश भक्ति के बारे में पूरी तरह से परीचित किया जाए तो वह सिकन्दर को हरा सकता है । इस देश को गुलाम होने से बचा सकता है । यदि सब कुछ सोच कर चाणक्य ने राजा के निमंत्रण को स्वीकार किया और वह उस भोज में गए भी चाणक्य जी को यह पता था कि महानन्द बहुत ही क्रोधी स्वभाव का राजा है ।


 क्रोध में अंधा हो कर वह अपने पराए अच्छे बुरे का अंतर भी भूल जाता है । परन्तु जब देश की आजादी खतरे में हो तो इन छोटी - मोटी बातों को सहन भी किया जा सकता है । यही सब सोच कर चाणक्य जी उस भोज में शामिल हुए । 


महानन्द जैसे ही ब्राह्मणों के सम्मान के लिये उस सभा में पधारे तो उन्होंने काले कलूटे कुरूप ब्राह्मण को देखा तो उनके माथे पर क्रोध के मारे कई बल पड़ गए । उसने उसी समय शक्दार को बुलाया । हमने आज तक नहीं देखा ।


 यह काला कलूटा बदशक्ल आदमी कौन है ? ऐसा कुरूप ब्राह्मण 

तो महाराज यह तो तक्षशिला विश्वविद्यालय के आचार्य महापंडित चाणक्य हैं । 

आप इनकी शक्ल की ओर न जा कर यदि इनकी बुद्धि की ओर जाएंगे तो इनसे बड़ा विद्वान इस देश में और कोई नहीं है ।


 बकवास बंद करो शक्टार हम गुण दोष बुद्धि के बारे में तो सब ही नहीं भाता उसे खाने को मन ही नहीं करता । जानते हैं मगर तुम शायद इस बात को नहीं जानते कि जो अन्न आंखों को नहीं देख सकते .परन्तु महाराज यह महापंडित है ।


 इस आदमी को अभी इसी समय इस सभा से बाहर निकाल दो , हम उसकी यह भद्दी और भौंडी शक्ल को चाहे यह विद्वान है या उससे भी बड़ा है मगर हम यह आदेश देते हैं कि इस आदमी को सभा से बाहर निकाल दो ।

 चाणक्य जी राजा की सारी बातों को सुन रहे थे उन्होंने सपने में भी यह आशा नहीं थी कि महानन्द उसे भरी सभा में अपमानित करेगा । अपमान सहन करना वैसे तो किसी भी ब्राह्मण के बस की बात नहीं । होती । लेकिन चाणक्य जी की तो बात ही कुछ ओर थी एक महाज्ञानी इन्सान अज्ञानी को अपमान भरी बातों को कहां सहन कर पाता है । 

चाणक्य क्रोध से भरे अपने स्थान से उठे और महानन्द की ओर देखखर अपने निचले होंठ को काटते हुए गर्ज कर बोले । हे मूर्ख राजा आज तुम अपने राज को शक्ति के गर्व में अहंकार भरे शब्दों से एक विद्वान का अपमान भरी सभा में कर रहे हो ।


 ताकत के नशे में तुम सब मान मर्यादाओं को भूल चुके हो तुम यह भी भूल गए हो कि सन्सार की सारी शक्ति उसकी बुद्धि में होती है । 


सुन्दरता किसे कहते हैं ?

 एक ज्ञान है जो सारे संसार के अंधेरों को मिटाने की शक्ति रखता है । वरना तो संगमरमर का पत्थर देखने में कितना सफेद है और सुन्दर होता है ।

 शिव  का पूजन काले पत्थरों की प्रतिमा से होता है । भगवान का पूजन काले पत्थरों की प्रतिमा से होता है ।


 यह सारा संसार विश्राम करता है वह भी तो काली होती है । हे चंडाल रूपी ब्राह्मण मैं सम्राट महानन्द हूं । 

मैं तुम्हारा भाषण नहीं सुनना चाहता , बल्कि मैं चाहता हूं कि तुम इसी समय इस सभा से बाहर चले जाओ जो का क्रोध उसको कटु वाणी सुनकर और भी बढ़ अब शायद वे अपने क्रोध पर काबू न रख सके और महानन्द को और घोर दृष्टि डाल कर कहा महानन्द अब तुम अपने अभिमान को सीमा की धार कर चुके हो और में अपनी सहनशक्ति की सीमा से बाहर आ गया हूँ ।

तुम्हारी इस सभा से जा रहा हूं और मैं अपनी चोटी की गांठ को इस सभा में खोल कर यह प्रतिज्ञा करता हूं इसे उस समय तक नहीं जब तक मैं अपने इस अपमान का बदला नहीं चुका कर आपको मिट्टयामेट न कर दूंगा ।


 विनाश ... विनाश .. सबसे पहले तुम्हारा विनाश यह मेरा लक्ष्य है राज , यह मेरी मंजिल है । बस में जा रहा हूँ अपने अंदर प्रतिशोध की ज्वाला को लेकर आज मैं इस आग में जल रहा है लेकिन वह दिन दूर नहीं जब यह आग तुम्हें जला देवी तुम्हारे इस राज पाठ को जला देगी।

 तुम ने आज एक ब्राह्मण का अपमान किया है । उसी का शाप तुम्हें खा जाएगा । 


श्लोक-

 किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम । दुष्कुलीनीऽपि , विदुषे देवैरपि सुपूज्यतो ॥

अर्थ-

 हे राजन अब इस श्लोक का अर्थ भी सुन लो । अनपढ़ विद्या से रहित उच्च कुल में पैदा होने वाले र्निगुणी मानव से लोगों को क्या लाभ हो सकता है । सत्य तो यह है कि छोटे कुल में जन्म लेने वालों कोई मानव यदि विद्वान है । ज्ञानी है तो इन्सान तो क्या देवता भी उसकी पूजा करते हैं । विद्या और ज्ञान तथा कर्म ही उसे महान बनाते हैं ।


 राजवंश में जन्म लेने से महान और ज्ञानी नहीं बनते मैं जा रहा हूं । लेकिन , फिर आऊंगा अपने इस अपमान का बदला लेने । और इसके पश्चात् हमारे यह नायक चाणक्य जी वहां से बाहर आ गए उन्होंने जंगल में ही एक झोपड़ी बना ली और उसी में रहने लगे । 


चाणक्य जी को यह तो पता था कि राजा महानन्द की रखैल वैश्य मुरा को गर्भ की हालत में पहले से बाहर निकाला गया है । उसके पेट में पलने वाला बच्चा शाही वंश का होगा मगर लोग उसे वैश्या की संतान कहेंगे । उसी के द्वारा ही इस अभिमानी राजा से बदला लिया जा सकता है । लोहा ही लोहे को काट सकता है ।


यह सोचकर चाणक्य ने जंगलों में उस औरत की तलाश शुरू कर दी । चाणक्य ने उसे खोज ही लिया । उन्होंने उस बालक को देखते ही उसकी मुरा ने जिस बेटे को जन्म दिया । वहीं चन्द्रगुप्त था । 


एक दिन भुजा शक्ति का अंदाजा लगा लिया था । ठीक यही है .... यही है यह बालक जो अपने पिता के अत्याचारों का बदला चुकाएगा और फिर प्रतिशोध की भड़काती ज्वाला चाणक्य जी को पता था कि लोहा ही लोहे को काट सकता है । 

परन्तु उसके लिए भी बुद्धि की आवश्यकता है । 


श्लोक-

निर्गुस्य हांत रूपं दुशीलस्य हतं कूल्म् । अर्थ असिद्धस्य हताविद्या हयोभोगेन हतं धनम् ॥ 


अर्थ- गुणहीन मनुष्य की सुन्दरता । दुराचारी मानव का उच्च कुल में जन्म लेना । जो विद्या जीवित न रख सके ( खाना न दे सके ) जो धन किसी के काम न आ सके । यह सब कुछ तो व्यर्थ है इनका कुछ भी लाभ नहीं , इन सबका कोई महत्त्व है इनका होना न होना बराबर है ।


 इसलिये चाणक्य जी ने उस बालक को बचपन से यह शिक्षा देनी शुरू कर दी थी । उनका यह मत था कि मानव को चाहिए कि वह गुण का आचरण करे उनका ही संग्रह करें अपनी विद्या का उपयोग मानव लाभ के लिये करें देश हित के लिये करे । धन पर कुंडली मार कर बैठने से क्या लाभ हो सकता है । 


चन्द्रगुप्त को चाणक्य जी ने बचपन से ही यह शिक्षा दी कि तुम्हारे शत्रु महानन्द हैं उसने ही तुम्हारी मां मुरा पर अत्याचार किए हैं , उस पापी और अत्याचारी इन्सान से यदि तुम बदला नहीं लोगे तो भगवान भी तुम्हें माफ नहीं करेंगे ।


 हे पूज्यपिता समान ब्राह्मण , उस राजा से कैसे बदला ले सकता हूं । जबकि वह तो एक सम्राट है और मैं एक अनाथ , मेरा तो इस दुनिया इस मां के अलावा और कोई नहीं मैं क्या करूं .. क्या करूं ...... ?


 यह कहते हुये वह बालक रोने लगा । आंसू इन्सान की सबसे बड़ी कमजोरी है बेटे , हिम्मत यदि तुम करोगे तो ईश्वर तुम्हारी सहायता जरूर करेगा यह बात तो तुम जानते हो कि जिसका कोई नहीं होता उसका ईश्वर होता है ।


मेरे ईश्वर तो आप हैं गुरु भी आप हैं , पिता भी आप हैं , आप जो चाहेंगे , जैसे भी कहेंगे वैसे ही मैं करूंगा । ठीक है अब मैं तुम्हें मग्ध नरेश बनाकर तुम्हें तुम्हारा अधिकार दिलाकर रहूंगा।

 यह मेरा जीवन है और मैं जो भी कहा है उसे पूरा करने के लिये यदि मुझे अपनी जान पर भी खेलना पड़े तो खेलने से पीछे नहीं हटं

हटूगा आप धन्य है गुरुदेव , मैं आपके चरणों में बैठ कर ही अपना खोया हुआ संसार फिर से पा लूंगा । अपनी मां के उस अपमान का बदला लेकर उसकी खुशियां फिर से वापस लाऊंगा ।


 चाणक्य के जीवन का यह एक मोड़ था जिस मोड़ पर से उन्हें आशाओं के दीप जलते मिले थे । चन्द्रगुप्त को साथ लेकर उसे शस्त्र विद्या राजनीतिक शिक्षा देने लगे थे । उधर शक्टार भी प्रतिशोध की आग में जल रहा था । चाणक्य को साथ लाकर उसने जो नया खेल खेला था उसमें उसे सफलता मिली थी । उसका यह परिणाम था चाणक्य प्रतिज्ञा वह इस बात को अच्छी तरह जानता था कि चाणक्य प्रतिज्ञा कोई साधारण बात नहीं कही जा सकती ।

 चाणक्य जी के जाने के पश्चात् ही शक्टार भी वहां से उनकी खोज में निकल पड़ा । राजा नन्द के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले सारे सैनिकों को उसने अपने साथ मिला लिया । उधर सिकंदर की सेना भारतीय राजाओं को निरंतर हराती हुई आगे बढ़ रही थी ।


 चाणक्य जी इस बात को जान चुके थे कि जब तक राजनीति का सहारा नहीं लिया जाएगा तब तक विजय श्री का मुख देखना बड़ा ही कठिन है । उधर तक्षशिला नरेश पुरु ने सिकन्दर की सेना के साथ जो हाथियों का युद्ध किया उससे सिकन्दर की सेना के दिल टूट गए थे । 


चाणक्य जी इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि जब भी शत्रु घबरा जाए तभी उस पर भयंकर आक्रमण करना चाहिए । इस अवसर की तैयारी के लिये चाणक्य जी ने भारतवर्ष के सब छोटे राजाओं को अपने साथ मिलाया और उन सबको सहायता चन्द्रगुप्त की दिला दी ।


 शक्टार भी अपनी बागी सेना को लेकर चन्द्रगुप्त से आ मिला । अब की बार चाणक्य नीति का जो कमाल देखने को मिला ऐसा जो इतिहास में बहुत कम ही देखने को मिलता है । भारत पर अपना अधिकार जमा कर उसे लूटने के सपने देखने के यूनानी शासक सिकन्दर जैसे ही चाणक्य नीति से युद्ध करने आया तो


चन्द्रगुप्त के हाथों में उसने जो मार खायी उसकी तलवार टुकड़े - टुकड़े होकर धरती पर गिरी । उसके शरीर पर अनेक घाव थे इस जख्मी हालत गया । यह जान चुका था कि अब यदि उसे अपनी जान बचानी है तो वापस यूनान ही भागना होगा । 


 सिकंदर का सारा साहस टूट भाग्य .. यही सोच कर सिकन्दर यूनान की ओर भाग खड़ा हुआ मगर वाह रे जो इन्सान दूसरों के घर जला कर आगे बढ़ रहा था जिसने लूट मार करके सारी दुनिया के राजाओं से अधिक धन जमा कर लिया था .।

 जो अपने देश से विश्वविजेयता बनने के सपने लेकर निकला था । जब उसकी मृत्यु हुई तो उसके शव पर कफन डालने वाला भी कोई नहीं था । 

सारे संसार का धनवान व्यक्ति जो भारत के बहुत सारे राजाओं के खजाने लूटने वाला जब मरा तो उसके दोनों हाथ खाली थे और बिना कफन के इस संसार से चला गया ।

 लेकिन यह सब क्यूं हुआ ? कैसे हुआ ? इस को तो केवल महापंडित चाणक्य ही जान सकते थे।


 जिन्होंने अपनी राजनीति की शक्ति से सिकन्दर को पराजय करके रख दिया । एक साधारण बालक को सम्राट चन्द्रगुप्त बनाकर राजगद्दी पर बैठा दिया ।


 चाणक्य का सपना अभी कहां पूरा हुआ था अभी तो उन्होंने नन्दवंश को मिटा कर अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करना था । सिकन्दर की हार में चन्द्रगुप्त को वीरों की प्रथम श्रेणी में ला कर खड़ा कर दिया । थोड़े समय बाद ही चाणक्य के कहने पर उसने नन्द देश पर जो आक्रमण किया तो उस के वंश का नाश करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली । 


उस दिन उन्होंने अपनी चोटी की गांठ लगा ली , सम्राट चन्द्रगुप्त के प्रधानमंत्री के रूप में चाणक्य जी ने अपने कंधों पर सारे शासन का रक्खा बोझ था । 


परन्तु इतने बड़े देश के प्रधानमंत्री होकर भी चाणक्य जी जंगल में अपनी कुटिया में ही रहते थे । चाणक्य जी ने अपनी प्रतिशोध की आग को ही शांत नहीं किया बल्कि उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में भी अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवा कर छोड़ा ।


 उनकी इस नीति का ही यह परिणाम था कि सिकन्दर जैसे विदेशी शक्तिशाली शासक को उन्होंने तोड़ कर रख दिया । एक महान तपस्वी तथा त्यागी महापंडित चाणक्य को नीति की शक्ति से ही चन्द्रगुप्त भारत सम्राट् बना ।


 चाणक्य जी ने स्वयं उसका राजतिलक किया । वे चाहते तो स्वयं भी राजा बन सकते थे परन्तु उनके मन में ऐसा कोई लालच नहीं था न ही किसी स्वार्थ को ले कर उन्होंने इतना बड़ा युद्ध लड़ा था ।

 चाणक्य के त्याग के बारे में हमें उस समय के चीनी यात्री फाह्यान के इन शब्दों से पता चलता है उन्होंने भारत यात्रा के पश्चात् जो स्मृण लिखे जिस देश का प्रधानमंत्री ही एक कुटिया में रहता हो और वहाँ के वासी बढ़िया घरों में रहते हैं । ऐसे देश को उस जनता की और उनके  तपस्वी तथा त्यागी प्रधानमंत्री की मैं जितनी भी प्रशंसा करूं वह कम ही है।


निष्कर्ष- 



 



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