वायु चिकित्सा कया है और कैसे करें-
इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक द्रव्य पंचमहाभूतों से मिलकर बना है और प्रत्येक द्रव्य में इनका अनुपात भिन्न-भिन्न होता है। इसी से द्रव्य-विशेष की विशेषता होता है। ये पंचमहाभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में इन्हीं पंचमहाभूतों से ही चिकित्सा की जाती है। इस पद्धति के अनुसार शरीर में मल एकत्रित होने से इन पंचमहाभूतों के अनुपात में असन्तुलन होता है। इस असन्तुलन को सामान्य लाने के लिए ये महाभूत ही माध्यम् होते हैं।
वायु चिकित्सा का महत्व-
वायु मानव जीवन के लिए एक आवश्यक महाभूत है। इस के बिना जीवन ही सम्भव नहीं है। क्षणभर वायु के बिना गुजारना मुश्किल हो जाता है। जन्मसमय मात्रा कुछ क्षण भी अगर बच्चा सांस न ले तो जीवन भर उस कमी से हुए उपद्रवों को सहना पड़ता है। जन्म से मृत्यु तक मनुष्य का जीवन इसी वायु पर निर्भर करता है।
पृथ्वी पर वायुमण्डल लगभग 300 मील तक फैला हुआ। यह वायु कई प्रकार की गैसों जैसे Oxygen, Nitrogen, Carbondioxide etc. से मिलकर बनती है। हर सजीव वस्तु इसी वायु में सांस लेकर जीवित है। प्राणी वायु से आक्सीजन लेते हैं और कार्बनडाइक्साइड छोड़ते हैं। जबकि पौधे कार्बनडाईक्साइड से अपना भोजन तैयार करते हैं।
वायु और सृष्टि-
इस प्रकार सृष्टि में यह वायु चक्र चलता रहता है। वायु में विद्यमान शेष गैसें भी प्राणी जगत के लिए अति महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। भारत की संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन जब किया जाता है तो मालूम होता है कि आदि काल से ही प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचलन रहा है। प्राणियों को पंचमहाभूतों से चिकित्सा करने का पूर्ण ज्ञान था। वायु की चिकित्सा की उपयोगिता के बारे में संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ अथर्ववेद, यजुर्वेद, ऋग्वेद तथा आयुर्वेद में मिलते हैं। भ्रमण, प्राणायाम, योग, वायुस्नान, विभिन्न वाद्य यन्त्रों का प्रयोग, शंख बजाना आदि के द्वारा वायु चिकित्सा का ही ज्ञान होता है।
वायु चिकित्सा के सवासथय लाभ-
आयुर्वेद में वर्णित त्रिदोषों में से एक दोष वात (वायु) ही है। वायु को 5 प्रकार का बताया गया है। प्राण, व्यान, उदान, समान और अपान वायु। इन पांचो प्रकार की वायु का अलग-अलग स्थान है और इनके अपने-अपने कार्य हैं। आयुर्वेदानुसार त्रिदोषों में कफ और पित को पंगू भी कहा गया है और वायु ही कफ, पित, रक्त, मल आदि को गति प्रदान करती है।
योगदर्शन में पतंजली ने अपने अष्टांग योग, यम, नियम, आसन के बाद प्राणायाम को लिया है। प्राणायाम का अर्थ है प्राणों का आयाम अर्थात सांस की लम्बाई को बढ़ाना। यानि गहरा लम्बा श्वास लेना और गहरा लम्बा श्वास छोड़ना। बाहर की वायू
को सांस द्वारा अंदर ले जाना पूर्क कहलाता है और अंदर गए सांस को वहीं रोकना आंतरिक कुंभक कहलाता है।
सांस द्वारा वायु को बाहर निकलना रेचक कहलाता है। सांस छोड़कर दोबारा सांस लेने हेतु लेने हेतू कुंभक कहलाता है।
योग दर्शन में वर्णित प्राणायाम के पूरक, कुम्भक रेचक भाग हैं। इसके अतिरिक्त अन्य किसी प्राणायाम का वर्णन योग दर्शन में नहीं मिलता। पतंजली ने दीर्घ जीवन एवं रोगमुक्ति हेतू प्राणायाम का उल्लेख किया है। प्राणायाम पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन में से किसी एक में आराम से बैठ कर किया जाता है। प्राणायाम एकान्त, शान्त, शुद्ध, स्वच्छ हवादार स्थान पर करना चाहिए। तेज लगने वाली हवा में प्राणायाम नहीं करना चाहिए।
वायु चिकित्सा करने का समय-
प्राणायाम प्रसन्न एवं शांत मन से करना चाहिए। प्रातः काल सूर्योदय पूर्व का समय प्राणायाम के लिए अति उत्तम रहता है। प्राणायाम अन्य समय पर भी किया जा सकता है लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि प्राणायाम के समय पेट पूरा भरा न हो। खाना खाने के तुरन्त पश्चात प्राणायाम नहीं करना चाहिए। लगभग 4 घण्टे बाद प्राणायाम किया सकता है।
वायू चिकित्सा का अभ्यास कैसे करें-
अभ्यास के आरम्भ में पूरक और रेचक में बराबर समय लगाना चाहिए। कुछ अभ्यास हो जाने पर यदि पूरक के पश्चात उतने ही समय के लिए कुम्भक लगाकर रेचक करें।
रेचक का समय पूरक और कुम्भक से दुगना होना चाहिए
यानि पूरक, कुम्भक और रेचक का अनुपात सैकण्ड्स में 4:4:8 का होना चाहिए। निरन्तर अभ्यास से 4:16:8 का
अनुपात किया जा सकता है।
वायु चिकित्सा के लिए सावधानिया :-
प्राणायाम हमेशा सुखपूर्वक बैठ कर शान्त मन से करना चाहिए और जोर लगाकर नहीं करना चाहिए।
प्रकार :-
पतंजलि द्वारा रचित योगदर्शन में अन्य प्रकार के प्राणायामों का वर्णन नहीं है। लेकिन कई शास्त्रों में प्राणायाम के प्रकार बताए गए हैं ।
जैसे- नाड़ी शोधन प्राणायाम, उज्जायी प्राणायाम, सूर्य भेदी प्राणायाम, चन्द्रभेदी प्राणायाम, शीतली, शीतकारी प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम, भस्त्रिका प्राणायाम आदि। ये सब प्राणायाम समय और रोग को ध्यान में रखकर किए जाते हैं। जैसे शीतली प्राणायाम ग्रीष्म ऋतु में करना चाहिए, यह प्यास बुझाता है और पित व्याधियों में हितकारी होता है।
सूर्यभेदी प्राणायाम सर्दियों में किया जाता है और कफ जन्य रोगों में लाभदायक होता है।
प्रातः काल और सांयकाल सैर से वायु की प्राप्ति होती है। शुद्ध वातावरण में टहलने से सभी रोग ठीक होते हैं। टहलते समय बदन पर ज्यादा या तंग कपड़े नहीं होने चाहिए।
त्वचा पर शुद्ध वायु का प्रभाव स्वास्थ्य दायक होता है। इससे त्वचा स्वस्थ और कोमल झुरियों से रहित होती है।
वृद्धावस्था देर से आती है। शरीर में शुद्ध वायु से जठराग्नि दीप्त होती है। पाचन संस्थान सुचारू रूप से कार्य करता है जिससे अन्य होने वाले रोगों से बचा जा सकता है। सैर से शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ भी मिलता है।
वायु के इन्हीं प्रभावों को देखते हुए ही सम्भवतः शंख और बांसुरी आदि यन्त्रों को बजाने का विधान होगा। शंख आदि बजाने से फेफड़ों से वायु बाहर निकलती है और शुद्ध वायु अन्दर जाती है।
जिस से फेफड़ों से सम्बन्निप्त रोग नहीं होते। इनसे कुछ कान और नाक से सम्बन्धित रोग भी ठीक होते हैं। गले में कफ, खांसी, दमा, नेत्र रोग ठीक होते हैं। वायु चिकित्सा मानसिक रोग जैसे घबराहट, क्रोध, अवसाद, तनाव, चिन्ता, निराशा आदि में बहुत लाभदायक है।
प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास से इन रोगों की सफल चिकित्सा की जा सकती है। इससे चित शान्त. निर्मल होता है। एकाग्रता आती है। बौद्धिक क्षमता का विकास होता है। ध्यान लगाने से पूर्व प्राणायाम विशेष लाभ प्रदान करता है।
संक्षेप में यह कहा जाए कि पंचमहाभूतों में वायु महाभूत चिकित्सा की दृष्टि से सर्वोपरि है। वायु ही जीवन का आधार है। कोई भी रोग चाहे शारीरिक हो या मानसिक सभी में वायुचिकित्सा लाभदायक होती है। यह हमारी आयु को बढ़ाने वाली होती है।
निष्कर्ष-
यह है कि वायु महाभूत हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्राणायाम जैसे विभिन्न तकनीकों के माध्यम से हम वायु को नियंत्रित कर सकते हैं और अपने स्वास्थ्य को सुधार सकते हैं। यह हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है और समृद्ध जीवन जीने में मदद करता है।
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