रामचरितमानस के अनमोल उपदेश: जीवन, भक्ति और मोक्ष का मार्ग | रामचरित मानस के प्रसिद दोहे

रामचरितमानस के अमूल्य उपदेश

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस न केवल एक महाकाव्य है, बल्कि इसमें जीवन को दिशा देने वाले गूढ़ उपदेश भी संकलित हैं। यह ग्रंथ भक्तिपथ का आलोक स्तंभ है, जिसमें श्रीराम के दिव्य चरित्र और आदर्शों के माध्यम से धर्म, भक्ति, नीति, और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया गया है।

उक्त श्लोकों और दोहों में जीवन के विभिन्न पहलुओं को संबोधित किया गया है। इनमें सत्संग का महत्व, काम, क्रोध, लोभ जैसे विकारों से बचने की सीख, भगवान की भक्ति और शरणागति का प्रभाव, तथा शिवजी की आराधना की अनिवार्यता का वर्णन किया गया है। श्रीराम स्वयं बताते हैं कि शुद्ध मन वाला व्यक्ति ही उन्हें प्राप्त कर सकता है, और शरण में आए व्यक्ति के करोड़ों जन्मों के पाप भी नष्ट हो जाते हैं।

यह लेख रामचरितमानस के अमृतमय वचनों का संकलन है, जो न केवल आध्यात्मिक उन्नति प्रदान करते हैं, बल्कि एक नैतिक और संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं।


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बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दर्लभ सब गंथन्हि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक संवारा।।

बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सभी ग्रंथों में कहा गया है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ होता है। यह साधना का धाम और मोक्ष का द्वार है। इसे पाकर भी जिसने परलोक नहीं संवार लिया, उसने बहुत बड़ा अवसर खो दिया।


(2)
सो परन्न दुख पावड सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।।

 वह मनुष्य परलोक में दुःख भोगता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है और अपने दोष को न देखकर काल, कर्म और ईश्वर पर मिथ्या दोष मढ़ता है।


(3)
एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।
नर तनु पाई बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।

 हे भाई! इस मनुष्य शरीर के मिलने का उद्देश्य केवल भोग-विलास नहीं है। स्वर्ग भी थोड़े समय का सुख है और अंत में दुखदायी होता है। जो मनुष्य इस तन को पाकर भी विषयों में लिप्त रहता है, वह अमृत छोड़कर विष को ग्रहण करने जैसा है।


(4)
ताहि कहौं भल कहइ न कोय। गूंजा ग्रहै परस मनि खोइ।।
ज्ञान चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जीव अबिनासी।।

 जो मनुष्य पारस मणि को छोड़कर घुंघची (सस्ती बीजमणि) ले ले, उसे कोई भी बुद्धिमान नहीं कहता। यह अविनाशी जीव 84 लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है।


(5)
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।।

 जो मनुष्य ऐसे श्रेष्ठ अवसर पाकर भी संसार-सागर से पार न हो, वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है।


(6)
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना।।
सब भरोस तजि जो भज रामहिं। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि।।

 कलियुग में न योग है, न यज्ञ, न ज्ञान। केवल एक ही आधार है—श्रीराम का गुणगान। जो सब आशाएं त्यागकर राम का भजन करता है और प्रेमपूर्वक उनके गुणों को गाता है, वही भवसागर से पार होता है।


(7)
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।।

जो व्यक्ति श्रीराम का नाम लेता है, वह भवसागर से अवश्य तर जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। कलियुग में नाम का प्रभाव प्रत्यक्ष है। कलियुग की एक विशेषता यह भी है कि इसमें मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर मानसिक पाप नहीं लगते।


(8)
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहें दृढ़ नावा।।
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुख अरुमन अभिरामा।।

 जो संसार रूपी सागर से पार पाना चाहता है, उसके लिए राम कथा मजबूत नौका के समान है। श्रीहरि के गुणों का गान, विषय-वासना में लिप्त लोगों को भी आनंद देता है।


(9)
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा।।
काल करम बस होहिं गोसाई। बरबस राति दिवस की नाई।।

 जन्म-मरण, सुख-दुख, हानि-लाभ, प्रियजनों का मिलन और वियोग—यह सब काल और कर्म के अधीन हैं, जो अनिवार्य रूप से दिन-रात की भांति घटित होते रहते हैं।


(10)
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी।।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

 लक्ष्मणजी ने मधुर और कोमल वाणी में कहा—"कोई भी किसी को सुख-दुख देने वाला नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने किए हुए कर्मों का ही फल भोगता है।"


(11)
सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।।

 अमृत (श्रेष्ठ ज्ञान) केवल सुनने को मिलता है, लेकिन विष (अनर्थ) प्रत्यक्ष दिखाई देता है। दुनिया में कौवे, उल्लू और बगुले अधिक हैं, हंस तो केवल मानसरोवर में ही होते हैं।


(12)
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा।।
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।।

 जो परमात्मा निराकार, अनाम, अजन्मा, सच्चिदानंदस्वरूप और सर्वव्यापक हैं, उन्हीं ने विभिन्न लीलाओं के लिए शरीर धारण किया है।


(13)
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार।।

 मुनीश्वर ने कहा—"हे हिमवान! विधाता ने ललाट पर जो लिख दिया है, उसे देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी मिटा नहीं सकता।"

14) मंत्र महामनि विषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक माल के।
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से।।

विषयरूपी सांप का जहर उतारने के लिये मंत्र और महामणि है। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से मिटने वाले बुरे लेखों (मंद प्रारब्ध) को मिटा देने वाले हैं। अज्ञानरूपी अंधकार के हरण करने के लिये सूर्यकिरणों के समान और सेवकरूपी धान के पालन करने में मेघ के समान हैं।


(15) छं०- जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता।।
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सह कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई।।

हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!!
हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्रीलक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो!
हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता।
ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें।


(16) दो०- बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।

सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गये बिना श्री रामचन्द्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता।


(17) दो०- बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।।

बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्रीरामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्रीरामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पाता।


(18) चौ0- बिनु संतोष न काम नसाहिं।
काम अच्छा सुख सपना नहीं।
राम भजन बिनु मिथिन कि काम।
थल बिहिन तरु कहहुँ कि जामा।।

सन्तोष के बिना कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता।
श्रीराम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं? बिना धरती के भी कहीं पेड़ उग सकता है?


(19) दो०- काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।

हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ—ये सब नरक के रास्ते हैं।
इन सबको छोड़कर श्रीरामचन्द्रजी को भजिये, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं।


(20) निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोह कपट छल छिद्र न भावा।
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।

जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।
यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी, हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है।


(21) चौ०- कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।
नमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।

जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता।
जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।


(22) दो०- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह के द्विजपद प्रेम।।

जो सगुण (साकार) भगवान् के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं।


(23) सारद कोटि अमित चतुराई।
बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता।
रुद्र कोटि सत मम संहर्ता।।

उनमें अनन्यकोटि सरस्वतियों के समान चतुरता है। अरबों ब्रह्माओं के समान सृष्टिरचना की निपुणता है।
वे करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करने वाले और अरबों रुद्रों के समान संहार करने वाले हैं।


(24) धनद कोटि सत सम धनवाना।
माया कोटि प्रपंच निधाना।
भार धरण सत कोटि अहिसा।
निरावधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।

वे अरबों कुबेरों के समान धनवान् और करोड़ों मायाओं के समान सृष्टि के ज्ञाता हैं।
बोझ उठाने में वे अरबों शेषों के समान हैं।
(अधिक क्रूा) जगदीश्वर श्रीरामजी सभी बातों में सीमारहित और उपमारहित हैं।


25) दोहा:
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।

मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं।
हे दुखियों के दुःख हरने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्रीरघुवीर! मेरी रक्षा करें, मेरी रक्षा करें।


(26) बर दायक प्रनतारति भंजन।
कृपासिंधु सेवक मन रंजन।
इच्छित फल बिनु सिव अवधे।
लहिअ न कोटि जोग जप साधे।।

शिवजी वर देने वाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के सागर और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं।
शिवजी की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी इच्छित फल नहीं मिलता।


(27) दोहा:
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।

मैं हाथ जोड़कर एक और गुप्त मत सबसे कहता हूँ कि शंकरजी के भजन के बिना कोई मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पा सकता।


(28) सिव द्रोही मम भगत कहावा।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।
संकर विमुख भगति चह मोरी।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।

जो शिवजी से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पा सकता।
जो शिवजी से विमुख होकर मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है।


(29) दोहा:
संकरप्रिय मम द्रोहि मम दास।
ते नर करहिं कल्प भरि घोर नरक महँ बास।।

जो शिवजी के प्रिय हैं परंतु मेरे द्रोही हैं, और जो शिवजी के द्रोही होकर मेरे सेवक बनना चाहते हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं।


(30) एहि महँ रघुपति नाम उदारा।
अति पावन पुरान श्रुति सारा।
मंगल भवन अमंगल हारी।
उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।

इसमें श्रीरघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यंत पवित्र, वेद-पुराणों का सार, मंगल का भवन और अमंगलों का नाश करने वाला है।
इसे स्वयं भगवान शिवजी पार्वतीजी सहित सदा जपते हैं।


(31) अंतर प्रेम तासु पहिचाना।
मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना।।

सर्वज्ञ श्रीरामजी ने उसके हृदय के प्रेम को पहचाना और उसे वह परम गति दी जो मुनियों को भी दुर्लभ है।


(32) चले जात मुनि चीन्हि देखाई।
सुनि ताड़का क्रोध करि चाई।
एकहि वान प्रान हरि लीन्हा।
दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।

मार्ग में जाते समय मुनि ने ताड़का को दिखाया।
श्रीरामजी ने शब्द सुनते ही क्रोधित होकर दौड़ती ताड़का को एक ही बाण से मार दिया और उसे दीन जानकर अपना दिव्य स्वरूप (मोक्ष) प्रदान किया।


(33) दोहा:
कह न पावकु जारी सक का न समुद्र समाइ।
का न करे अबला प्रबल केहि जग कालू न खाय।।

आग क्या नहीं जला सकती? समुद्र में क्या नहीं समा सकता?
अबला कही जाने वाली स्त्री (जब प्रबल हो) क्या नहीं कर सकती? और जगत में काल किसे नहीं खाता?


(34) सासु पितर गुरु सेवा करेहू।
पति रूढ़ि लक्षि आयसु अनुसरेहू।
अति स्नेहे बस सखिं सयानी।
नारी धरम सिखवहिं मृदु बानि।।

सास, पिता और गुरु की सेवा करनी चाहिए।
पति के स्वभाव को देखकर उसकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
सयानी सखियाँ अत्यंत स्नेह से कोमल वाणी में स्त्री-धर्म का उपदेश देती हैं।


(35) दोहा:
सेन सहित तव मन मथि बन उजारि पुर जारी।
कस रे सठ हनुमान् कपि गयौ जो तव सुत मारि।।

हे मूर्ख रावण! हनुमानजी ने तेरी सेना को नष्ट कर दिया, तेरे अशोकवन को उजाड़ दिया, तेरे नगर को जलाया और तेरे पुत्र को मारकर चले गए।
क्या तू यह सोच रहा है कि हनुमानजी केवल एक वानर हैं?


निष्कर्ष

रामचरितमानस केवल एक पवित्र ग्रंथ ही नहीं, बल्कि मानव जीवन के लिए एक मार्गदर्शक भी है। इसके प्रत्येक दोहे और चौपाई में गूढ़ अर्थ छिपे हैं, जो हमें धर्म, भक्ति, नीति और जीवन की सच्ची राह दिखाते हैं। इन उपदेशों के माध्यम से तुलसीदासजी ने यह स्पष्ट किया कि सत्संग के बिना ज्ञान संभव नहीं, भक्ति के बिना ईश्वर की कृपा नहीं मिलती और राम नाम के बिना जीवन में सच्चा सुख नहीं आ सकता।

श्रीराम का चरित्र हमें त्याग, सेवा, विनम्रता और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। इस ग्रंथ में भक्ति की महिमा के साथ-साथ यह भी बताया गया है कि शिव और राम एक ही सत्य के दो रूप हैं, और जो व्यक्ति इन दोनों की भक्ति करता है, वही सच्चा कल्याण प्राप्त करता है।

अतः, यदि हम रामचरितमानस के इन उपदेशों को अपने जीवन में अपनाएं, तो न केवल हमारी आध्यात्मिक उन्नति होगी, बल्कि हमारा जीवन भी सुखमय, शांतिपूर्ण और सफल बन सकता है।



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